जनसंख्या
की वृद्धि का, शहर
झेलते दंश।
नाममात्र
ही रह गया,
प्राणवायु
का अंश।
प्राणवायु
का अंश, सिलसिला हर
दिन जारी
गाँव
शहर की ओर,
बढ़
रहे बारी बारी।
पनपें यदि ग्रामीण, रहे ना दुविधा बाकी।
शहरों
से हो दूर,
वृद्धि
यह जनसंख्या की।
शुद्ध हवा को खा रही, इमारतों की फौज।
रहवासी मजबूर हैं, कर्ताओं की मौज।
कर्ताओं की मौज, कर रहे खूब कमाई
मची हुई है लूट, नहीं होती सुनवाई।
तरस रहे हैं लोग, स्वस्थ बहती पुरवा को।
इमारतों की बाढ़, खा रही शुद्ध हवा को।
गाँव हमारे देश की, खुशहाली की खान।
फसल उगाते प्रेम से, सबके लिए किसान।
सबके लिए किसान, ध्यान हो उनके हित पर
जनसंख्या का बोझ, शहर पर होगा कमतर।
कहनी इतनी बात, अगर यह तंत्र विचारे
भर देंगे खलिहान, देश के, गाँव हमारे।
धारा अगर विकास की, मुड़े गाँव की ओर।
शहरों पर फिर क्यों पड़े, जनसंख्या का ज़ोर।
जनसंख्या का ज़ोर, अगर थोड़ा भी कम हो
प्रदूषणों से आज, शहर भी क्यों बेदम हो।
कहनी इतनी बात, यही देना है नारा
मुड़े गाँव की ओर, तरक्की
की अब धारा। -कल्पना रामानी
2 comments:
कहनी इतनी बात, सपूतों आलस त्यागो,बदलो शासन तंत्र, नींद से अब तो जागो.................
शुद्ध हवा को खा गई, इमारतों की फौज,रहवासी मजबूर हैं, कर्ताओं की मौज .......
कहनी इतनी बात, तंत्र यह बात विचारे,खुशहाली की खान, देश के गाँव हमारे.........
कहनी इतनी बात, स्वस्थ जीवन यदि प्यारा,गांवों में ले जाएँ, तरक्की की अब धारा..........
सभी कुण्डलिया एक से बढ़कर एक ..बधाई कल्पना जी
didi sabhi blog bahut sundar hai aapka beta bilkul aap jaisa hi hai .......abhi babut safar hamen lekhan ke kshetra me saath hi karna hai aap bas apna dhyan rakhiye .....shashi
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